अनारकली ऑफ आरा: फ़िल्म समीक्षा

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अनारकली ऑफ आरा के पोस्टर में स्वरा भास्कर की साज-सज्जा वाली फ़ोटो देख कर मुझे अपनी बस्ती याद आई, तो ये भी याद आया कि ढाल-ढाकुर में इसी तरह की साज-सज्जा के साथ ख़ूब सारा पाउडर औंस कर नाचने वाली नचनिया को हम घर वालों की निगाह से बच कर देखने जाते थे। हालाँकि वो नचनिया आम तौर से औरत नहीं होती थी। उस के नाच में तमाम तरह का फूहड़-पन होता था। लेकिन इस फूहड़-पने की खीर खाने वालों के चेहरे की चमक देखने लाएक़ होती थी। हर कोई धक्का-मुक्की के बीच अपने हिस्से का नज़ारा करना चाहता था। हम भी कहीं दबे-पड़े अपनी ऐंठी हुई गर्दन से जिद्द-ओ-जोहद कर रहे होते थे। इस के बावजूद उन में से कोई हमें ये नहीं कहता था कि तुम बच्चा लोग यहाँ क्या कर रहे हो।

मैं ये बात क्यूँ कह रहा हूँ तो सुन लीजिए कि आज जब Book My Show खोला तो पता चला कि ये एडल्ट फ़िल्म है। मुझे इस बात पर कोई ए’तिराज़ नहीं है कि लिखे-पढ़े लोगों ने इस को एडल्ट फ़िल्म की कैटेगरी में रखा होगा। एक ज़माने में हमारे लिए एडल्ट का मतलब नेशनल सिनेमा दरभंगा का मॉर्निंग शो होता था। हम मॉर्निंग शो से निकलने वालों को हसरत भरी निगाह से देखा करते थे कि पता नहीं ये लोग क्या देख कर आ रहे हैं। बाद में पता चला तो हँसी आई कि अच्छा तो इस को एडल्ट कहते हैं। अब इस का मतलब और बदल गया है। ख़ैर ये ग़ैर-ज़रूरी बात थी, लेकिन एडल्ट यानी अश्लीलता से याद आया कि इस फ़िल्म में भी कुछ लिखे-पढ़े लोगों का एक ग्रुप अपने बैनर के साथ ‘अश्लीलता’ के ख़िलाफ़ मोर्चा संभाले नज़र आता है, लेकिन जब इस फ़िल्म की अनारकली बिना कुछ कहे उन को अश्लीलता का मतलब समझाती है तो फ़िल्म के निर्देशक को जी भर कर दाद देने का मन करता है।

मेरे ख़याल में ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि किसी फ़िल्म को ‘ए’ सर्टिफ़िकेट देने वाली संस्था को उसी फ़िल्म के माध्यम से अश्लीलता का मतलब ‘समझाया’ गया है। अस्ल में मुझे इस बात पर ए’तिराज़ है कि इस फ़िल्म के माध्यम से आप एक ख़ास समाज की रोज़-मर्रा की भाषा, उनके गीत और जीवन शैली को अश्लील कह रहे हैं?

ख़ैर इन सब बातों को भी जाने दीजिए, और ये सुनिए कि इस फ़िल्म के केन्द्र में जिस नचनिया की कहानी पेश की गई है उस को आज की सभ्य और सिनेमा की भाषा में आइटम-गर्ल कहते हैं। आइटम-गर्ल को किस नज़र से देखना चाहिए ये भी हमें इसी समाज ने सिखाया है? शायद इस लिए आइटम-गर्ल के नाज़-ओ-अदा और लटके-झटके में समाज के उस पक्ष का चेहरा ज़्यादा रौशन हो गया है जो आम-तौर से एक पेशेवर कलाकार और बदन बेचने वाली औरतों में फ़र्क़ नहीं करता। अगर फ़र्क़ करता भी है तो उस को अपनी जाएदाद समझता है।

बड़ी बात है कि अविनाश दास ने एक नचनिया की ज़िंदगी में स्त्री-विमर्श और देह-विमर्श के उन पहलुओं की छान-बीन की है, जिस का एक सशक्त संवाद मंटो की ‘हतक’ वाली सौगंधी के यहाँ नज़र आता है। मेरी ये बात शायद हवा-हवाई मालूम हो तो मिसाल भी दे देता हूँ कि जब देसी-तंदूर और इंग्लिश-ओवन वाली अनार कली ऑफ आरा की हतक यानी स्त्री-अस्मिता के साथ हज़ारों लोगों के सामने खिलवाड़ किया जाता है तो फ़िल्म के वी सी साहब मंटो की कहानी के सेठ लगने लगते हैं। मंटो और अविनाश की कहानी का आपस में कोई लेना देना नहीं लेकिन स्त्री-अस्मिता के सवाल पर दोनों कहानियाँ एक दूसरे से गहरा संवाद करती नज़र आती हैं।

सब से पहले तो मुझे अविनाश जी को मुबारकबाद पेश करनी है कि उन्हों ने इतनी बड़ी और उपेक्षित कहानी को फ़िल्म के माध्यम से पेश किया। ऐसा नहीं है कि इस फ़िल्म की आलोचना नहीं की जा सकती। लेकिन ऐसी फ़िल्मों की आलोचना फ़ुज़ूल है कि ये सिर्फ़ फ़िल्म नहीं है।

स्वरा ने अपनी भूमिका में हर तरह से जान डाल दी है। संवाद हो या शारीरिक भाषा या अभिव्यक्ति के दूसरे ज़ाविए, स्वरा ने इस पात्र को पेश करने में कमाल-ए-फ़न का मुज़ाहिरा किया है। ज़रा सा भाषा की गंभीर शैली में कहूँ तो स्वरा कहीं भी इस पात्र के साथ जिद्द-ओ-जोहद यानी संघर्ष करती नज़र नहीं आईं। वो अपने कैरक्टर में माँगी हुई मिट्टी नहीं लगीं। स्वरा का पहला सीन ही इतना ज़ोरदार है कि फ़िल्म का शीर्षक उस में नज़र आ जाता है।

स्वरा ने स्त्री-स्मिता से जुड़े सवाल को बहुत क़ाएदे से पेश किया है। औरत की इफ़्फ़त, इस्मत और अज़्मत को परिभाषित करती ये फ़िल्म अस्ल में विचारों के संघर्ष की कहानी है। इसलिए ये फ़िल्म अपनी क्षेत्रीयता के हुस्न-ओ-जमाल के साथ कहीं आगे का सफ़र तय करती नज़र आती है। तनु वेड्स मनु,लिसन अमाया और निल बटे सन्नाटा की स्वरा यहाँ और बड़ी अभिनेत्री लगने लगती है। यहाँ एक ऐक्ट्रेस के तौर पर स्वरा ने ख़ुद को नए सिरे से तलाश किया है, और संभावनाओं की ज्योति प्रज्वलित की है। सच पूछिए तो इस फ़िल्म में स्वरा सिर्फ़ एक बड़ी अदाकारा के तौर पर ही नज़र नहीं आतीं बल्कि मंटो के उस क़ौल को चरितार्थ करती नज़र आती हैं कि ‘हिंदुस्तान में ठेट हिंदुस्तानी फ़िल्में बननी चाहिऐं۔۔۔۔۔۔तमाशाई तफ़रीह हासिल करने के साथ-साथ सिनेमा हॉल से बाहर निकलते वक़्त अपने दिमाग़ों की आग़ोश में ग़ौर-ओ-फ़िक्र के जरासीम भी लेते जाएँ’। ज़ाहिर है इस बात के लिए फ़िल्म-निर्देशक की तारीफ़ भी की जानी चाहिए।

स्वरा के मुकालिमा अर्थात डायलॉग की ख़ास तौर से चर्चा करना चाहता हूँ कि उनके उच्चारण और मख़्सूस लफ़्ज़ों की अदायगी से मैं मबहूत रह गया। वो लफ़्ज़ जो हम अपने गाँव में बोलते हैं उस को उसी शुद्धता के साथ बोलना आसान नहीं। बोलने की बात जाने दीजिए अभी 2-3 वर्ष पहले हिन्दी की मशहूर और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका ने बिहार के एक ख़ास क्षेत्र पर उपन्यास लिखा और होम-वर्क के तौर पर यूट्यूब से कुछ गाने सुने और उसी के पेश-ए-नज़र भाषा की तराश-ख़ाराश की और अपने संवाद लिखे। फिर इत्तिफ़ाक़ से मुझे बुलाया तो मैं ने पूरा नॉवेल पढ़ने के बाद अपनी राय दी कि इस में वो बात नहीं है, फिर उन्हों ने कुछ और कोशिशें भी की। लेकिन ये उपन्यास आज भी भाषा की सतह पर झूठ बोल रहा है। ऐसे में मुझे बड़ी हैरत हुई कि स्वरा ने भाषा को उसकी सच्चाई के साथ न सिर्फ़ बोला है बल्कि अपने हाव-भाव में भी उस के हुस्न को क़ाएम रखा है। ज़ाहिर है इस के लिए स्वरा को बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी। लेकिन इस मेहनत के बाद जो फ़िल्म सामने आई है उस ने भाषा का ‘अल्हुआ-सुथनी’ नहीं किया है।

‘ए’ सर्टिफिकेट वाली इस फ़िल्म में सिनेमा का बाज़ार वाला रवैया नहीं है। बहुत ही ईमानदारी से फ़िल्म को उन विचारों के संघर्ष के साथ जोड़ा गया है, जिस को बिल-उमूम नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है।

संजय मिश्रा और पकंज त्रिपाठी का तज़्किरा भी लाज़मी है कि वो अपनी अदाकारी में कमाल करते नज़र आए हैं। ख़ास तौर से संजय मिश्रा का किरदार फ़िल्म में अपनी मौजूदगी का एहसास करवाता है। दूसरे पात्रों में अनवर और दिल्ली के रिकॉर्डिंग स्टुडियो में काम करने वाला किरदार अपनी जगह लाजवाब है।

इस फ़िल्म में हम जेएनयू वालों के हादी भाई अनारकली को लिपस्टिक बेचते और शेर सुनाते अच्छे लगे। उनके एक ही डायलॉग में इश्क़ और मोहब्बत का धर्म-संकट बहुत ही मार्मिक है। उनको बहुत कम समय ही के लिए सही बड़े पर्दे पर देखना ज़ाती तौर पर खुश-गवार रहा कि हम ने सालों उन को अपने जेएनयू में स्टेज पर गंभीरता से विचारों की लाड़ाई की अगुआई करते देखा है।

अविनाश जी को एक बार और मुबारकबाद पेश करता हूँ कि उन्हों ने इस तरह के सब्जेक्ट पर फ़िल्म बनाने का जोखिम मोल लिया। छोटे-छोटे गाँव और गाँव-नुमा शहरों की सच्चाई पर फ़िल्म बनाना किसी तरह से आसान नहीं रहा होगा। बहुत मुमकिन था कि फ़िल्म भद्दे-पन का शिकार हो जाती, या अनारकली की माँ के मर्डर वाले हिस्से के सहारे आगे का सफ़र तय करते हुए मामूली हिंदी फ़िल्म की तरह बदले की आग वाली एक्शन से भरपूर फ़िल्म बन कर रह जाती। इन सब बातों के बरअक्स ये फ़िल्म फॉर्मूला और मसाला फ़िल्मों को बड़ी ख़ूबी से रद करती है।

फ़िल्म के अंदर इतना गहरा संवाद मौजूद है कि ये हमें इस फ़िल्म को साहित्य और समाज-शास्त्र के तौर पर देखने और पढ़ने के लिए उकसाती है। इसलिए मेरी राय है कि भाषा और विचारों के विमर्श को पेश करती ये फ़िल्म सिर्फ़ फ़िल्म नहीं है, और सिर्फ़ फ़िल्म नहीं होना ही इस की एक बड़ी ख़ूबी है।

फ़िल्म के गाने स्क्रिप्ट और सब्जेक्ट-डिमांड के हिसाब से हैं, और एक जगह तो अमीर ख़ुसरो की कह-मुकरनी की तर्ज़ पर ए सखी न सखी का लुत्फ़ ही कुछ और है। गानों में सिनेमा वाला टच भी है, लेकिन ‘मोरा पिया मतलब का यार’वाले गाने में उस भाषा-क्षेत्र और उत्तेजना का ख़याल बहुत ख़ूबी से रखा गया है जिस ज़मीन पर ये फ़िल्म खड़ी है। इन गानों को सुन कर साहित्य के उन प्रेमियों को ज़्यादा ख़ुशी होगी जो भाषा की मक़ामी शैली की अहमियत और अफ़ादियत से वाक़िफ़ हैं। सागर भाई को इस के लिए अलग से मुबारकबाद पेश करता हूँ।

इस फ़िल्म पर हर तरह से ग़ौर करने के बाद जो एक बात हाथ लगती है वो ये है कि फ़िल्म बड़े अर्थों में स्वरा यानी उन औरतों की फ़िल्म है, जिन की कहानियाँ बड़े विमर्शों के दरमियान दबी रह जाती हैं । स्वरा इस फ़िल्म के लिए याद रखी जाएँगी कि उन्हों ने इस फ़िल्म के माध्यम से एक नया ट्रेंड सेट किया है। अंत में बस ये कहना है कि सोच-विचार की खुली हवा में साँस लेने के लिए इस तरह की फ़िल्मों की पज़ीराई होनी चाहिए ।

कौन बदन से आगे देखे औरत को

सब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में

लेखक : फ़ैयाज़ अहमद वजीह