मैं अंग्रेज़ी कैलेंडर का अनुसरण करता हूँ : हाँ मैं ग़ुलाम हूँ 

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मोहम्मद उमर अशरफ 

“यूरोपीय सभ्यता की उन्नति एवं विकास का मुख्य कारण भौतिक नियमों से अधिक मनोविज्ञान के नियमों को महत्ता देना भी है।”

– एच टी बकल

बात साफ़ है कि यूरोप ने 18वीं और 19वीं सदी ईस्वी में जो पूरी दुनिया को अपना उपनिवेश या ग़ुलाम बनाया था वो सिर्फ़ तलवार, बंदूक़ या सेना के दम पर नहीं था बल्कि इसकी एक बड़ी वजह उपनिवेशों में रहने वाले लोगों के दिमाग़ को ग़ुलाम बना लेना था। ये बात आम दिमाग़ को सुनने में अजीब लगती है और समझ से बाहर भी और इसकी वजह फिर से मानसिक ग़ुलामी है।

अंग्रेज़ों ने कहा इस्लाम तलवार से फैला हमने मान लिया। कैसे मान लिया ? बिलकुल आम सी जानकारी रखने वाला इंसान भी ये बता सकता है कि इस्लाम धर्म के सबसे कट्टर अनुयायी हज़रत अली, हज़रत उमर, हज़रत अबू बक्र, अदि किसी को डरा कर मुसलमान नहीं बनाया गया। न रसूल ने हाथ में तलवार उठा कर किसी को इस्लाम क़ुबूल करने को कहा। अगर हम आज के भारत की ही बात करें तो ये बात काफ़ी रोचक है कि जैसे पहले अंग्रेज़ व्यापारी थे वैसे ही अरब इलाक़ों से आने वाले व्यापारी ही भारत में पहली बार इस्लाम का संदेश लाये थे। तब भी आप और मैं क्या मानते हैं कि इस्लाम तलवार से फैला।

अब आप पूछियेगा कि आख़िर इस झूठ को फैलाने से अंग्रेज़ क़ौम को क्या फ़ायदा ? फ़ायदा ये कि आप और हम दुनिया को जीतने के सही तरीक़े को यानि दिमाग़ को क़ाबू करने की न सोचें और न ये ध्यान दें कि कैसे हमारा दिमाग़ ग़ुलाम हो चुका है।

अपने चारों ओर ग़ौर से देखिये। हम किस क़दर ज़बान से बुने गए एक ऐसे जाल में फंसे हैं जो कि यूरोप का प्रोपेगंडा है। जब इराक़ ईरान युद्ध होता है तो हम कहते हैं मध्य-पूर्व या मिडिल-ईस्ट में युद्ध छिड़ गया है। कभी सोचा है आपने दिल्ली, मुंबई, या भारत के किस शहर से ईराक़ मध्य-पूर्व पड़ता है। ये यूरोप की नज़र से मध्य-पूर्व है। हमारी ज़बान जब उनकी दी हुई परिभाषाएं सुबह शाम दोहराती हैं तो अंदर ये एहसास भी मज़बूत होता रहता है कि वो लोग हमसे बेहतर हैं तब ही तो हम उनसे ज़बान और परिभाषा उधर ले रहे हैं।

अब मैं असल मुद्दे की ओर आता हूँ। आप में से बहुत लोगों ने अमर्त्य सेन का वह लेख पढ़ा होगा जिसमें कि उन्होंने भारत में कैलेंडर के इतिहास की बात करते हुए ये बताया है कि तारीख़ का रिकॉर्ड रखना भारत में किसी भी सभ्यता के मुक़ाबले नया नहीं। देखा जाये तो यूरोप के दुनिया पर क़ब्ज़े से पहले दुनिया में अलग अलग कैलेंडर लोग इस्तेमाल कर रहे थे।  भारत में विक्रमी सम्वत, शक सम्वत जैसे कई कैलेंडर प्रचलन में थे। जहां जहां मुसलमान थे वहां हिजरी कैलेंडर का इस्तेमाल होता था। हिजरी कैलेंडर हज़रत मुहम्मद के मक्के से मदीना पलायन से अपनी तारीख़ गिनता है और इसमें महीना या साल चाँद के घटने बढ़ने से तय पाती हैं। आज भी मुसलमान चाँद की तारीख़ का हिसाब रखते तो हैं पर केवल ईद मनाने के लिए। यूरोप के बाहर की पूरी दुनिया ने सर नवा कर ये क़बूल कर लिया है कि तारीख़ सिर्फ़ और सिर्फ़ अंग्रेज़ी कैलेंडर की होती है। और अगर सूरज की चाल के हिसाब से आपका कैलेंडर नहीं चलेगा तो आप पिछड़े हुए कहलाओगे। अंग्रेज़ ने कहा हमने मान लिया।

इस बात को कहने में क्या शर्म कि ये ग़लती मैं भी करता आया हूँ। मुझसे कोई पूछता था कि ख़िलाफ़त आंदोलन कब शुरू हुआ या कब ख़त्म हुआ तो मेरा जवाब वही होता था कि 1919 से 1924, मैंने कभी ये नहीं बोला कि 1337 में शुरू हुआ और 1342 में ख़त्म हुआ। क्यों ? क्योंकि हम मुँह से बोले या न बोलें पर हमने अपने कैलेंडर को हिंदू, मुसलमान कैलेंडर मान लिया है और ईसाईयों का कैलेंडर सेक्युलर कैलेंडर है। अगर हम उनके कैलेंडर को न मानें तो हम तो जाहिल, अनपढ़, रूढ़िवादी कहलायेंगे न।

कभी सोचिये क्या हम सच में आज़ाद हैं ? हमारी तारीख़ पर भी यूरोप का क़ब्ज़ा है।

(लेखक इतिहासकार हैं, वा www.heritagetimes.in के संपादक एवं संचालक हैं.)