सआदत हसन मंटो: अपने समय का विवादित लेखक जो अब पूरी दुनिया में फेमस है

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अलीगढ़, । सदाअत हसन मंटो 11 मई 1912 को पैदा हुए और 18 जनवरी 1955 को दुनिया से रुखसत कर गए। 42 साल और 8 महीने की जिंदगी में मंटो ने इश्क, त्रासदी, सांप्रदायिक झगड़ों पर खूब लिखा। बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह लिखने वाले मंटो पर अश्लीलता के कई आरोप लगे। उन्हें कुल 6 बार अदालत में जाना पड़ा। 3 बार ब्रिटिश भारत में 3 बार पाकिस्तान में। लेकिन एक भी बार मामला साबित नहीं हो पाया। मगर मंटो की कहानियां पढ़ने वाले बताते हैं कि उनकी लेखनी समाज को उधेड़ कर फेंक देती है। आज वे भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया के निर्विवाद रूप से महान लेखक हैं।

उर्दू के अजीम अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की लेखनी अलीगढ़ में ही निखरी थी। उनकी लिखी दूसरी कहानी ‘इंकलाब पसंद’ भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से प्रकाशित ‘अलीगढ़ मैगजीन’ में 1935 में छपी थी। पहली कहानी ‘तमाशा’ थी। एएमयू संस्थापक सर सैयद अहमद खां के जमाने की इस मैगजीन में यह कहानी इसलिए छपी, क्योंकि मंटो तब यहां के छात्र थे। वह 1934 में यहां आए थे और टीबी (तपेदिक) के शिकार हो जाने के कारण सालभर में ही स्कूली पढ़ाई छोड़कर लौट गए थे। इस बीच वह स्थानीय इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन से भी जुड़ चुके थे।

पंजाब के लुधियाना जिले के गांव समराला में 11 मई 1912 में सआदत हसन मंटो पैदा हुए थे। उनके पिता गुलाम हसन मंटो न्यायाधीश थे। एएमयू के उर्दू विभाग में प्रो. तारिक छतारी बताते हैं कि मंटो की पर्सनैलिटी को गढ़ने में अलीगढ़ आ बसे अमृतसर निवासी वामपंथी लेखक अब्दुल बारी अलीग का अहम रोल रहा था। उन्हीं के सुझाव पर मंटो ने फ्रांसीसी व रूसी लेखकों को पढ़ा और अंग्रेजी लेखन का उर्दू में अनुवाद किया। बारी से खतो-किताबत भी उनकी चलती रही। प्रो. छतारी के मुताबिक मंटो को रोमांटिक कहानियों के लिए भले ही याद करें, मगर उन्होंने तमाम कहानियां घरेलू मसलों पर भी लिखी हैं।

अज्ञेय ने फाड़ दिए थे अपनी कहानी के पन्ने :

जाने-माने उर्दू साहित्यकार व एएमयू के उर्दू विभाग के अध्यक्ष रहे पद्मश्री काजी अब्दुल सत्तार कहते हैं कि हमारे यहां दो ही अफसानानिगार हुए। मुंशी प्रेमचंद व सआदत हसन मंटो। प्रेमचंद ने गांव के पिछड़े तबके के दर्द को उठाया तो मंटो ने इससे इतर तवायफों को चुना। वह मानते थे कि समाज में सर्वाधिक उपेक्षित, कमजोर व मजबूर समूह तवायफों का ही है। उनके सच को बयां करने में उनकी कलम नहीं रुकी। उन पर अश्लीलता फैलाने के आरोप भी लगे, जो एकदम गलत थे। छह बार जेल भी गए, पर सजा से बचे रहे।

बकौल प्रो. सत्तार, जिस वक्त मंटो कहानी ‘बू’ लिख रहे थे, उसी दौरान सच्चितानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय भी इसी शीर्षक से कहानी लिख रहे थे। दोनों की भेंट मुंबई में साहित्यकार भैरों प्रसाद गुप्ता के यहां हुई। भैरों दा ने अज्ञेय को मंटो की ‘बू’ पढ़ने को दी। उसे पढ़ने के बाद उन्होंने अपनी ‘बू’ फाड़ दी।

प्रो. सत्तार यह भी जोड़ते हैं कि अगर मुंशी प्रेमचंद व मंटो यूरोप में पैदा हुए होते तो विश्वविख्यात होते। विभाजन के बाद मंटो लाहौर चले गए और 18 जनवरी 1955 को निधन हो गया। छोटे से जीवन में ही वह अपने समय से आगे की बात कह गए।

मंटो अपने बारे में कहते हैं कि-

मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना मेरा जन्म था। मैं पंजाब के एक अज्ञात गांव ‘समराला’ में पैदा हुआ। अगर किसी को मेरी जन्मतिथि में दिलचस्पी हो सकती है तो वह मेरी मां थी, जो अब जीवित नहीं है। दूसरी घटना साल 1931 में हुई, जब मैंने पंजाब यूनिवर्सिटी से दसवीं की परीक्षा लगातार तीन साल फेल होने के बाद पास की। तीसरी घटना वह थी, जब मैंने साल 1939 में शादी की, लेकिन यह घटना दुर्घटना नहीं थी और अब तक नहीं है। और भी बहुत-सी घटनाएं हुईं, लेकिन उनसे मुझे नहीं दूसरों को कष्ट पहुंचा। जैसे मेरा कलम उठाना एक बहुत बड़ी घटना थी, जिससे ‘शिष्ट’ लेखकों को भी दुख हुआ और ‘शिष्ट’ पाठकों को भी।