गुज़रे ज़माने की मशहूर अदाकारा, नृत्यांगना और नृत्य निर्देशिका ज़ोहरा सहगल की याद दर्शकों के दिल में ज़िदादिल, बोलती आंखों वाली चुलबुली दादी के तौर पर बनी रहती है.
ज़ोहरा सहगल ने ‘चीनी कम’, ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘दिल से’, ‘वीर ज़ारा’ जैसी हिंदी फ़िल्मों में ‘चुलबुली और ज़िंदादिल दादी’ बनकर दर्शकों के दिलों में जगह बनाई.
27 अप्रैल 1912 में पैदा हुई ज़ोहरा सहगल , करीब सात दशक के अपने करियर में नृत्य, थिएटर और फ़िल्मों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया.
2014 में 102 साल की उम्र में ज़ोहरा सहगल ने दुनिया को अलविदा कह दिया था.
उनकी बेटी किरण सहगल मशहूर नृत्यांगना हैं, उन्होंने बीबीसी से ख़ास बातचीत में अपनी मां के बारे में कई ऐसी दिलचस्प बातें बताईं.
शेर शायरी और कविताएं
ज़ोहरा सहगल अक्सर सार्वजनिक समारोह में शेर शायरी और कविताएं प्रस्तुत करती थीं. बेटी किरण सहगल ने बताया की माँ ज़ोहरा ने शायरी अपने जीवन में बहुत देरी से शुरू की.
शाम को व्यायाम की तरह वो 36-37 कविताएं घर पर बोला करती थीं ताकि उनकी स्मरण शक्ति मज़बूत रहे. 1987 में जब वो हिंदुस्तान लौटीं तो धीरे-धीरे सार्वजनिक समारोह में भी शेरो-शायरी करना शुरू कर दिया.
अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान पसंदीदा कलाकार
ज़ोहरा सहगल ने ‘चीनी कम’ फ़िल्म में अमिताभ बच्चन की माँ का किरदार निभाया था और शाहरुख़ खान के साथ ‘वीर ज़ारा’ और ‘दिल से’ काम किया था. ये दोनों कलाकार ज़ोहरा सहगल को बेहद पसंद थे.
‘चीनी कम’ की शूटिंग के वक़्त बेटी किरण उनके साथ यात्रा किया करती थीं क्योंकि बढ़ती उम्र के साथ अकेले यात्रा करना ज़ोहरा सहगल के लिए मुश्किल हो गया था.
किरण सहगल ने बताया की उन्हें शारीरिक रूप से खड़े होने में तकलीफ़ होती थी पर उन्हें अपने काम में बड़ा मज़ा आता था.
पृथ्वीराज कपूर को गुरु मानती थीं
लम्बे समय तक नृत्य के साथ जुडी ज़ोहरा सहगल और पति कामेश्वर नाथ सहगल ने बंटवारे के तनाव के कारण बॉम्बे (मुंबई) आने का फ़ैसला किया.
1945 में ज़ोहरा सहगल पृथ्वी थिएटर से जुड़ीं और क़रीबन 15 साल तक जुड़ी रहीं. पृथ्वीराज कपूर का वो बहुत आदर किया करती थीं और थिएटर में उन्हें अपना गुरु मानती थीं.
क्रिकेट मैच की शौक़ीन
ज़ोहरा सहगल फ़िल्में लगभग ना के बराबर देखती थीं, लेकिन क्रिकेट मैच वो बड़े चाव से देखा करती थीं. आँखें कमज़ोर होने के कारण बेटी किरण क्रिकेट के मैच के दौरान मैच का स्कोर लगातार ज़ोहरा सहगल को बताया करती थीं. हालांकि उनका कोई पसंदीदा खिलाड़ी नहीं था.
खाने की शौक़ीन
वह अच्छे खाने की शौक़ीन थीं. उनकी पसंदीदा चीज़ें थी पकौड़े , कड़ी और मटन कोरमा. बेटी किरण ने बताया की जब घर पर कोई मेहमान आते तो वो फ़ौरन पकौड़े बनाने को कहतीं और परोसे जाने पर मेहमानों से ज़्यादा ख़ुद ही खा लिया करती थीं.
वज़न की चिन्ता
अपने वज़न को लेकर ज़ोहरा सहगल बहुत ही सचेत रहा करती थीं. हर दूसरे दिन वज़न मशीन में अपना वज़न आँका करती थीं.
अगर ज़रा सा भी वज़न बढ़ जाया करता तो वो बावर्ची को बुलाकर कहती थीं कि उनके खाने में घी और मक्खन ना डाला जाए जब तक उनका वज़न मनचाहा ना हो जाए.
किरण अक्सर माँ ज़ोहरा की खिंचाई कर उनसे कहा करती, “आप करीना कपूर तो बन नहीं सकतीं और ना ही आपकी बारी आएगी तो क्यों वज़न की चिन्ता करतीं हैं?”
नृत्य गुरु ना बन पाने की कसक
नर्तक उदय शंकर के साथ लम्बे समय तक बतौर नर्तकी जुड़ी रहीं ज़ोहरा सहगल ने 1945 में थिएटर का रुख किया और अभिनय का दामन थामा.
बेटी किरण सहगल की नृत्य पर गर्व करने वाली ज़ोहरा सहगल को चुभन रही की वो बेटी की तरह नृत्य गुरु ना बन पाईं, जिसका ज़िक्र वो कभी-कभी बेटी से करती थीं.
पश्चिम में काम करना नहीं था आसान
पति के असामयिक देहांत के बाद ज़ोहरा सहगल का बॉम्बे (मुंबई) में रहना मुश्किल हो गया था तो वो दिल्ली में अपने परिवार के पास दोनों बच्चों के साथ लौट आईं.
दिल्ली आने के बाद उन्हें रूस में टूर का मौका मिला. मॉस्को से वो लंदन गईं और वहाँ काम करना शुरू किया. शुरुआत में काम मिलना बहुत मुश्किल रहा. वहां भारतीय कलाकारों को काम नहीं मिल पा रहा था.
भारतीय किरदार भी अंग्रेज़ों को रंग बदलकर करवाया करते थे. जिससे कई बार ज़ोहरा सहगल नाराज़ और दुखी हुआ करती थीं पर जब दौर बदला तो उन्हें काम मिलने लगा.
उन्होंने ‘तंदूरी नाइट्स’, ‘पड़ोसन’, ‘क्राउन ऑफ़ ज्वेल थीफ़’ जैसे शो में काम कर के मशहूर हुईं. अक्सर बसों में लोग उन्हें पहचानने लगे और बैठने के लिए अपनी सीट दे दिया करते.
22 साल पश्चिम में काम करने के बाद ज़ोहरा सहगल 1987 में हिंदुस्तान लौटीं और हिंदी फ़िल्मों में काम करना दोबारा शुरू किया.
थिएटर पहली पसंद
ज़ोहरा सहगल को भले ही फ़िल्म और टीवी ने बेशुमार शोहरत दी पर उन्हें बतौर अभिनेत्री थिएटर में संतुष्टि मिलती थी. थिएटर से उन्हें प्यार था हालांकि फ़िल्में कमाई का अच्छा ज़रिया थीं.
कभी डिप्रेशन की शिकार नहीं हुईं
ज़ोहरा सहगल ने 102 साल की ज़िन्दगी में कई उतार चढ़ाव देखे. कम उम्र में उन्होंने अपनी माँ को खोया. पति का असामयिक निधन हुआ.
पश्चिम देश में काम के लिए संघर्ष किया. कैंसर की मरीज़ भी बनीं और कैंसर से उबरीं भी.
बेटी किरण कहती हैं, “माँ हंसी-मज़ाक करती थीं पर कभी गंभीर भी रहती और कभी दुखी भी हो जातीं. बढ़ती उम्र के साथ साथ उनके शरीर में दर्द भी बहुत था पर वो कभी भी डिप्रेशन की शिकार नहीं हुईं.
उनकी दिनचर्या काफ़ी व्यस्त रहा करती थी. वो हर रोज़ धूप में एक घंटे बैठा करती थीं फिर चाहे आंधी आए या तूफान आए. वो अक्सर कहती कि मुझे जो करना था मैंने कर लिया. मुझे ज़िन्दगी में किसी चीज़ का मलाल नहीं है”
ज़ोहरा सहगल के निधन के बाद किरण हर साल अप्रैल के महीने में माँ की याद में कलात्मक कार्यक्रम ‘ज़ोहरा सहगल फेस्टिवल ऑफ़ आर्ट’ का आयोजन करती है.