कमजोर बैंकों के समाधान कानून से बढ़ जाएगा संकट !

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यह एक ऐसे क्षेत्र में भरोसे की कमी का संकट है जो नियामक संस्था के वजूद में होने से अत्यधिक अपेक्षा को जन्म देता है। पहले जो संकट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों तक ही सीमित लग रहा था, अब उसके दायरे में निजी क्षेत्र के बैंकों के भी आने का खतरा मंडरा रहा है। इस तरह के माहौल में नाकाम हो रहे बैंकों के समाधान के लिए प्रस्तावित कानून को राजनीतिक तौर पर अलविदा कहा जा सकता है। इस समस्या के निदान का सबसे अहम पक्ष यह है कि समस्या के वजूद को स्वीकार किया जाए। अब इसके लक्षणों पर गौर करते हैं :

पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) में सिस्टम के ठप होने से 110 अरब रुपये का कथित घोटाला हुआ था। बैंक गारंटी जारी कर घपला किए जाने से यह गंभीर सवाल खड़ा हुआ कि कोई भी बैंक कितना असुरक्षित हो सकता है? भारतीय रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार के बीच दोहरे नियंत्रण और प्रमुख पदों पर नियुक्तियों में आरबीआई की कोई भूमिका नहीं होने को लेकर आपस में आरोप-प्रत्यारोप का दौर सार्वजनिक रूप से चलता रहा। बैंक बोर्ड ब्यूरो के गठन के पीछे के मकसद पर स्पष्टता न होने और ब्यूरो एवं सरकार के बीच संवाद की कमी सार्वजनिक होने से अटकलें लगने लगीं कि क्या वास्तव में ब्यूरो की कोई भूमिका है? निजी क्षेत्र के आईसीआईसीआई बैंक और ऐक्सिस बैंक के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) कई दिनों तक समाचारपत्रों के मुखपृष्ठ पर छाए रहे। आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ पर हितों के टकराव और चालाकी से भरे भ्रष्टाचार का आरोप लगा है तो दूसरे बैंक की सीईओ पर प्रदर्शन खराब रहने और अनुमोदन के अभाव का आरोप लगा था।
 नए कानून ऋणशोधन एवं दिवालिया संहिता में निर्धारित समाधान प्रक्रिया के तहत ऋणदाताओं पर शक्तियों के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं। ये आरोप समाधान पेशेवरों द्वारा संबंधित पक्ष को अनुबंध की स्वीकृति देने से लेकर कर्ज समाधान प्रस्तावों के मूल्यांकन में पारदर्शिता के अभाव और विजेता के चयन में निर्णय-निर्माण की शक्तियों को वैधता प्रदान करने तक से जुड़े हुए हैं। तमाम कानूनों में बुनियादी धारणा यह है कि बैंकों का कामकाज गहरी ईमानदारी एवं विश्वसनीय तरीके से होता है। यही वजह है कि बैंकों की तरफ से पेश किए गए दस्तावेजों को पहली नजर में वैध मान लिया जाता है। ग्राहकों के भरोसे को बनाए रखने के मामले में बैंक कर्मचारी का स्थान वकीलों से थोड़ा ही पीछे आता है। बैंकों के स्वामित्व और प्रशासन पर करीबी नियमन किए जाने से बैंकों की तरफ से किए जाने वाले दावों को अत्यधिक अहम माना जाता है। एक बार अगर किसी बैंक का गठन हो गया तो उसका वजूद खत्म होना लगभग नामुमकिन है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए बनाया गया कानून उन्हें अपना कामकाज समेटने से रोकता है। सरकार इन बैंकों को सुचारु रूप से चलाने के लिए करदाताओं से जुटाए गए फंड को इन बैंकों में डालती रहती है। यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया कई वर्षों तक अपनी वास्तविक स्थायी पूंजी को लेकर अनिश्चितता के दौर से गुजरता रहा। प्रतिभूति बाजार के नियामक सेबी ने सरकार को कई तरह की छूट दी हैं। उनके तहत सरकार को बैंकों में अधिक पूंजी डालते समय शेयरधारकों के सामने खुली पेशकश करने की जरूरत भी नहीं रह गई है। इस तरह की छूट कभी किसी सूचीबद्ध कंपनी को नहीं दी जाती है। निजी बैंक भी आम कंपनियों की ही तरह हैं लेकिन वे इस मामले में अलग हैं कि उन्हें भी सार्वजनिक बैंकों की तरह बंद नहीं किया जा सकता है। मसलन, निजी क्षेत्र के ग्लोबल ट्रस्ट बैंक का ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स में विलय कर दिया गया। सेंचुरियन बैंक को आरबीआई की निगरानी में डाली गई निजी इक्विटी के सहारे नया जीवन दिया गया। बैंक ऑफ पंजाब और लॉर्ड कृष्णा बैंक का क्रमिक रूप से सेंचुरियन बैंक में विलय किया गया। बाद में इस संकटग्रस्त बैंक को भी एचडीएफसी बैंक में मिला दिया गया। संकट से घिरे टाइम्स बैंक का भी एचडीएफसी बैंक में विलय हुआ। असल में, जमींदोज होने के कगार पर पहुंच चुके निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण होने से ही सार्वजनिक बैंक वजूद में आए थे।
संक्षेप में, बैंक कई तरह से खास होते हैं। जब किसी बैंक का गठन होता है तो वह अमिट होता है और उसका वजूद खत्म नहीं हो सकता है। बैंकों में अपनी गाढ़ी कमाई रखने वाले शख्स को यह भरोसा होता है कि वहां पर उसका धन पूरी तरह सुरक्षित है। यह भरोसा ही बैंकिंग व्यवस्था का आधार है।  क्रमिक रूप से बड़ा रूप अख्तियार करने वाला बैंक प्रस्तावित समाधान कानून के दायरे में रखा जाएगा। इस कानून के तहत ऋण समाधान और संस्थान को बचाकर रखने के लिए बैंकों की प्रतिबद्धताएं बदली जा सकती हैं। एक आम आदमी सोचता है कि इस कानून के दायरे से बाहर के बैंकों में उनका जमा सुरक्षित है लेकिन ऐसे कानून के वजूद में आने के बाद उसके दायरे से बाहर के बैंकों को नाकाम होने के लिए बहुत बड़ा नहीं माना जाएगा।
प्रस्तावित वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा विधेयक फिलहाल संसदीय समिति के पास विचाराधीन है। बैंकिंग क्षेत्र का परिवेश इस अहम सुधार को लागू करने के लिए शायद ही अनुकूल है। अगर बैंक अपेक्षित ईमानदारी से काम नहीं करते हैं तो आम आदमी भी यह सवाल करने लगेगा कि बैंकर उसके जमा को अपने जानकार लोगों पर क्यों उड़ा रहे हैं और एक कमजोर बैंक का समाधान किए जाने पर भी उसे नुकसान क्यों होगा? यह सवाल भी खड़ा होगा कि आम करदाताओं का चुकाया कर उन बैंकों को चलाए रखने के लिए क्यों लगाया जाए? विश्वास बहाली के लिए गंभीर प्रयास किए बगैर बैंकिंग क्षेत्र के लिए हालात अनिष्टकारक ही लग रहे हैं