तलाक में इस्लाम नहीं बल्कि इस्लाम में तलाक है !

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लेखक -अब्दुल माजिद निज़ामी

तलाक में इस्लाम नहीं बल्कि इस्लाम में तलाक हे।

मेरी समझ में ये नहीं आता की इंस्टेंट तलाक पर बात करने से लोग क्यूँ भागते हैं। पहले तो ये बात समझ लें की जो लोग इंस्टेंट तलाक को जाइज़ मानते हैं वो शरीयत के खिलाफ नहीं हैं बल्कि उस मत के खिलाफ हैं जो एक वक़्त में तीन तलाक को जाइज़ मानते हैं।

इंस्टेंट तलाक या इंस्टालमेंट तलाक दोनों ही इस्लाम का हिस्सा हैं तलाक को लेकर मुस्लिम उलेमा के बीच हमेशा दो मत रहे हैं।

इमाम अबु हनीफा के नज़दीक एक वक़्त में तीन तलाक (इंस्टेंट तलाक) जाइज़ हे जबकि दुसरे इमामों और अहले हदीस के नज़दीक एक वक़्त में एक ही तलाक होती हे इसका मतलब ये हुआ की दोनों ही तरीके इस्लामी शरीयत के मुताबिक हैं अब ये हमारे ऊपर हे की हम कोनसा तरीका अपनाएं क्योंकि हिंदुस्तान में इमाम अबु हनीफा के followers सबसे बड़ी तादाद में हैं इस लिए यहाँ तीन तलाक (इंस्टेंट तलाक ) का आम रिवाज रहा हे और इसी को असल इस्लामी शरीयत के मुताबिक समझा जाता रहा हे जबकि ऐसा नहीं हे क्योंकि जहाँ जहाँ इमाम अबु हनीफा के अलावा दुसरे इमामों को मानने वाले या अहले हदीस हैं वहां इंस्टेंट तलाक का रिवाज नहीं हे क्योंकि उनके नज़दीक एक वक़्त में तीन तलाक देने के बावजूद एक ही तलाक होती हे जैसा की सऊदी अरब और दुसरे मुस्लिम देशों में आपको देखने को मिलेगा। इस लिए इंस्टेंट तलाक या इंस्टालमेंट तलाक कोई इशू नहीं हे।

जो लोग तलाक का मसला लेकर क़ाज़ी(इस्लामी शरीयत के जज) के पास जाते हैं उनको क़ाज़ी उसी इमाम के अनुसार फैसला सुनते हैं जिनके वो follower हैं इस लिए तलाक के मसले पर इतना वावेला मचाने की आवश्यकता नहीं हे। एक मुस्लमान इस्लामी शरीयत के हिसाब से पुरी तरह आज़ाद हे की वो तलाक के लिए जो तरीका चाहे अपनाये।

जो लोग इंस्टेंट तलाक को बुन्याद बनाकर इस्लाम और मुस्लिम पर्सनल ला को निशाना बनाते हैं दर असल उनको इस्लामी शरीयत की सही जानकारी नहीं हे या उनकी मानसिकता के पीछे कोई खुफया एजेंडा होता है। तीन तलाक का मुद्दा अदालत में हे और आपको ये जानकर हैरत होगी की मुसलमानो की तरफ से मुस्लिम उलेमा के दोनों ही पक्ष(इंस्टेंट/इंस्टालमेंट) इस बात पर पूरी तरह सहमत हैं की ये हमारा धार्मिक इंटरनल मुद्दा हे इसे अदालत के बहार ही हल किया जाना ज़रूरी है क्योंकि दोनों ही मत इस्लामी शरिया के मुताबिक़ हैं इस्लाम ने हर एक को इस बात की इजाज़त दी हे की वो जिसका फॉलोवर होगा उसके अनुसार वो तलाक दे सकता हे।लेकिन अगर अदालत किसी भी पक्ष को कोई एक मत का पाबंद बनती हे तो ये इस्लामी शरीयत में दखल अंदाज़ी होगी।

और जो लोग सऊदी अरब व दुसरे इस्लामी मुल्ककों की मिसाल देकर हिंदुस्तान में भी इंस्टेंट तलाक को लागु करने की वकालत करते हैं उनको ये मालूम होना चाहिए की हिंदुस्तान में already इंस्टेंट तलाक़ जाइज़ है जो लोग उस (इंस्टेंट तलाक) मसलक /मत पर अमल करना चाहें तो वो कर सकते हैं और करते ही हैं। उसके लिए अदालत से कानून की मांग करने और दुसरे फरीक को  किसी एक मत का पाबंद बनाने की किया आवश्यकता है। अदालती कानून के दुवारा दुसरे फरीक को किसी एक मत का पाबंद बना कर क्या उसकी मज़हबी आज़ादी में दखल अंदाजी नहीँ होगी? मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का भी ये ही मत हे जिस पर सभी मसलक/मत के धर्म गुरुओं की सहमति हे। एक बात और बहुत important है वो ये की जिन लोगो को इस्लाम या किसी भी धर्म  की किसी बात पर कोई ऐतराज़ हे तो वो उस धर्म के सही जानकर/ विध्वान (जो उस (particular issue के लिए अधिकीरित हो) से मिल कर अपनी बात रखें और इशू पर डिबेट कर उसे समझें उसके बाद ही किसी नतीजे पर पहुचें। केवल सोशल मीडिया या किसी unauthorized resources से हासिल की गयी जानकरी “नीम हकीम खतरा ए जान” होती हे।