न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है;
किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है
(अहमद फ़राज़)!
मैं भारत का शिक्षित युवा यह कैसे कहूँ की नया साल मुबारक हो, जबकि मुझे पता है 2 करोड़ नॉकरी नहीं मिलेगी और ना ही 15 लाख रुपया बैंक खाते में आएगा! जब नवम्बर 2015 में नोटेबन्दी का एलान हुआ था तो लगा कि कालाबाजारी, काले नोट, भ्रष्टाचार, और आतंकवाद खत्म हो जाएगा पर हुआ इसका उल्टा!
नोटेबन्दी के दौरान 100 से ज़्यादा लोग लाइन में लग कर अपनी जान गंवा बैठे पर ब्लैक मनी वाला 15 लाख अभी तक किसी के खाते में नहीं आया और ना ही भविष्य में आएगा, लोगों को बताया गया कि यह एक चुनावी जुमला था! इसी नोटेबन्दी के दौरान लाखों लोगों की नौकरियां चली गई, हज़ारों लोग कम सैलरी में भी काम कर रहे हैं! इन सबके वाबजूद, कुछ लोगो के अच्छे दिन भी आ गए! किसी एक शख्श के बिज़नेस में 16 हज़ार गुणा मुनाफ़ा हुआ और एक वाणी तो मार्गदर्शक होके भीड़ में खो गए पर दूसरा बानी के जिओ का जय हो गया! कुछ लोग चाटुकारिता का हद पार कर स्वतंत्र निदेशक बन हर महीने लाखों रुपये का चूना जनता को लगा रहे हैं! कहीं शाखा में हाज़िरी देने वाले लोग विश्वविद्यालय में भी हाज़िरी लगवाने को आतुर हैं! शिक्षा का मुख्य उद्देश्य अब मानशिक चेतना बढाना नहीं अपितु धार्मिक वेदना फैलाना रह गया है!
पुनः नोट बन्दी जैसा ही एक निर्णय, कानून बनकर लोगों को फिर से लाइन में लगाने को तैयार है! नोटबन्दी में तो पैसा निकालने की होड़ में लगे थे, इसबार कागज़ बनवाने के लिए अभी से लोग लाइन में लगने लगे हैं! एक रिपोर्ट के अनुसार असम के NRC में सरकार का 1600 करोड़ और जनता का 7800 करोड़ ख़र्च हुआ है! हालांकि आर्थिक से ज़्यादा नुकसानदेह इसके पीछे की मंशा दिख रही है! एक तो नागरिकता साबित करने में सबसे से ज़्यादा परेशानी गरीबों को होगी, जैसा कि नोटबन्दी के दौरान हुई थी! पर असल खेल मूलनिवासियों को विदेशी साबित करने का है! कागज़ नहीं होने पर इस देश के मूल निवासी विदेशी साबित कर दिए जाएंगे, हो सकता है किसी बहाने उनको 4-5 सालों में नागरिकता मिल भी जाए पर इसी बीच उनका आरक्षण ख़त्म किया जा सकता है! क्योंकि एक बार नागरिकता साबित करने में विफल हो जाने पर उन्हें कहना पड़ेगा कि वो पाकिस्तान, बांग्लादेश या फिर अफ़ग़ानिस्तान से यहाँ आए हैं! तो षड्यंत्ररूपेण मूलनिवासी विदेशी और विदेशी कागज़ दिखाकर मूलनिवासी बन जाएंगे!
आतंकवाद का जहाँ तक सवाल है वो बढ़ता ही जा रहा है! राजनैतिक हित के लिए निर्दोष नागरिकों की बर्बरतापूर्ण हत्या थमने का नाम ही नहीं ले रहा! मतलब डिजिटल इंडिया में विडिओ सामने आने पर भी निर्दोष जेल में कष्ट झेल रहे हैं और दोषी मौज में लोगों को वहाँ भेज रहे हैं जहाँ जाना उनके पूर्वजों ने ही ठुकरा दिया था! मतलब हमारे देश में गाँधी और आज़ाद हार रहे हैं और जिन्ना की जीत हो रही! बताइए ऐसे में नया साल मुबारक कैसे और किसको कहा जाय!
नक़्शा ले कर हाथ में बच्चा है हैरान;कैसे दीमक खा गई उस का हिन्दोस्तान (निदा फ़ाज़ली)!
पूरे देश में फैल रहा धार्मिक विद्वेष रूपक दीमक ने हमारे देश को अन्दर से खोख्ला कर दिया है! मैंने 2015 में ही अपने एक लेख में कहा था की ज्यों-ज्यों देश में धार्मिक विद्वेष बढ़ेगा देश का GDP (सकल घरेलू उत्पाद) घटेगा! जब डर के मारे लोग घर से निकलना ही बन्द कर देंगे तो घरेलू उत्पाद की बिक्री पर इसका असर स्वाभाविक है! पर हमें देश की उन्नती और प्रगति से क्या मतलब, हमे तो धर्म का साथ और अपना विकास चाहिए! हम यह भूल जाते हैं कि धर्म का इतिहास हज़ारों साल पुराना है जबकि धार्मिक ठेकेदार को पैदा हुए अभी सौ साल भी नहीं हुए हैं! हमने हर बात को नज़रअंदाज करना सीख लिया है जो कि हमारे सामाजिक सौहार्द के लिए घातक है! नूशूर वाहिदी ने सच ही कहा है के, ” हज़ार शम्मा फरोजाँ हों रोशनी के लिए; नज़र नहीं तो अंधेरा है आदमी के लिए!” कहने का तात्यपर्य यह है कि चाहे जितना भी रोशनी कर दिया जाए पर जिसको आँख ही ना हो उसके लिए वो अंधेरा ही है; अर्थात आज हम अपने कामों में इतना व्यस्त हो गए हैं कि अपने समाज में फैल रही कुरीतियों एवं चल रहे षड्यंत्र को हम देख ही नहीं पा रहे हैं!
कश्तियाँ डूब रही हैं कोई साहिल लाओ;अपनी आँखें मिरी आँखों के मुक़ाबिल लाओ(राही)!
इन सबका अगर यथार्थवादी अवलोकन किया जाय तो राजनैतिक रूप से वामपंथ ही इसे ठीक कर सकता है परन्तु वैज्ञानिक समाजवाद का दम्भ भरने वाली वामपंथी दलों का शीर्ष नेतृत्व भी विफलता का मजा लेने लगे हैं, फ़लस्वरूप इनके इकाईयों को ढहने से कोई रोक नहीं पा रहा है! पर वो कहावत है ना कि हाथी अगर बैठा भी हो गधा से ऊँचा ही रहता है! मुझे यकीन वामपंथी भी अपने बच्चों को आगे बढ़ने देंगे और रूढ़िवादिता को छोड़कर वैज्ञानिक समाजवादी विचारधारा पर चल निकलेंगे! जैसा कि निदा फ़ाज़ली ने कहा है, “बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो;चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे!
मैं उस दिन सबको नए साल के आगमन का पुरखुलूस मुबारकवाद दूंगा जब नेताओं से ज़्यादा जनता ख़ुशहाल रहने लगेगी! अस्पताल में बच्चों का मरना बन्द हो जाएगा, भात-भात कहते बच्चे भूख से नहीं मरेंगे! धर्म के नाम पर लोगों का कत्लेआम समाप्त हो जाएगा, दोषियों के समर्थन में लोग राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करना बन्द कर देंगे तथा दोषियों को सजा दिलाने के लिए अदालत में आवाज़ उठाएंगे ना कि बचाने के लिए! मैं उस दिन नए साल का हार्दिक बधाई दूँगा जब लोगों का विश्वास लोकतंत्र पर पुनर्स्थापित हो जाएगा! जब जुमलेवाजों से जनता सवाल करने लगेगी! झूठ बोलकर सत्तासीन होना पाप माना जाएगा और लोग झूठ-मूट की राजनीति के विरुद्ध आंदोलन करने लगेंगे और सच का साथ देने लगेंगे!
मैं उस दिन नया साल को शुभ मानूँगा जब सबको शिक्षा सबको काम मिलने लगेंगे, किसानों के फसल का सही दाम मिलने लगेगा! दलितों और अल्पसंख्यकों को सम्मान मिलने लगेंगे! पर मैं दुःखी हूँ कि
ये मोजज़ा भी किसी की दुआ का लगता है
ये शहर अब भी उसी बे-वफ़ा का लगता है!
~इफ्तिख़ार आरिफ़
लेखक:
शाहनवाज़ भारतीय,
Ph.D, जामिया मिल्लिया इस्लामिया