हम न बलात्कार से परेशान होते हैं न छलात्कार से

693

नई दिल्ली: उन्नाव, कठुआ और सूरत में सामने आई बलात्कार की घटनाओं के विरुद्ध देश भर में फूटा रोष सच्चा है, इसमें संदेह नहीं. इन सभी मामलों में पीड़ित के साथ जो जघन्य क्रूरता हुई, वह किसी भी सभ्य इंसान और व्यवस्था को सिहरा देने-शर्मिंदा कर देने के लिए काफ़ी है. लेकिन जब धीरे-धीरे यह गुस्सा बैठ जाएगा, उसके बाद क्या होगा? क्या हम फिर किसी निर्भया या किसी 11 साल की बच्ची के साथ बलात्कार का इंतज़ार करेंगे ताकि फिर प्रदर्शन करके अपनी शर्मिंदा अंतरात्मा के लिए थोड़ी राहत खोजें? क्योंकि 2012 से 2018 के बीच के क़रीब साढ़े पांच साल में बलात्कार की कम से कम 1.5 लाख घटनाएं इस देश में रिपोर्ट की जा चुकी हैं. अगर हिसाब लगाएं तो हर 18 मिनट पर एक बलात्कार इस देश में हो रहा होता है. यानी जितनी देर में यह लेख लिखा जा रहा होगा और जब आप इसे पढ़ रहे होंगे तब भी कोई न कोई लड़की कहीं बलात्कार की शिकार हो रही होगी.

तो क्या यह बलात्कार नहीं, बलात्कार की जघन्यता है जो हमें द्रवित करती है? अमूमन रोज़ और चंद मिनटों में होने वाले बलात्कार से हम क्यों आहत नहीं होते? हमारा विवेक जागे, इसके लिए हमें किसी निर्भया या आसिफ़ा की ही ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या हमारा समाज वाकई बलात्कार के विरोध में है? क्या वह हर बलात्कार का उसी तीव्रता से प्रतिरोध करता है जिस तीव्रता से कुछ मामलों का करता है? यह सवाल बलात्कार के विरुद्ध चल रहे मौजूदा आंदोलनों को कहीं कमतर साबित करने के लिए नहीं उठाए जा रहे हैं? निर्भया आंदोलन ने निश्चय ही भारतीय स्त्री को एक नया साहस दिया और पहली बार वह खुलकर अपने विरुद्ध होने वाले अत्याचारों पर बात करने की हिम्मत जुटा सकी. संभव है, आसिफ़ा का मामला लैंगिक बराबरी और सम्मान की उसकी लड़ाई को कुछ और आगे ले जाए. लेकिन यह सवाल फिर भी बचा रहता है कि आख़िर सामाजिक-लैंगिक न्याय और बराबरी की लड़ाई हम कितने तर्कसंगत ढंग से आगे बढ़ा रहे हैं? क्या हम स्त्रियों के साथ हो रहे अपराध की समाजशास्त्रीय समझ विकसित करने या अपनी न्याय प्रणाली की उन विसंगतियों का सामना करने को तैयार हैं जिनकी वजह से ऐसे मामले बढ़ते जाते हैं और इंसाफ़ दूर छिटकता जाता है?

बलात्कार को लेकर मौजूदा गुस्से को देखते हुए दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल धरने पर बैठ गई हैं। वे चाहती हैं कि बलात्कार के मामलों में छह महीने की सज़ा हो। क्या यह पूरी न्याय प्रणाली से एक नाजायज़ मांग नहीं है?  बलात्कार के मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट या जल्द सुनवाई की मांग तो की जा सकती है लेकिन यह कैसे पहले से तय किया जा सकता है कि छह महीने में किसी भी मामले का निबटारा निचली अदालत से सर्वोच्च अदालत तक में हो जाए? यह काम कंगारू कोर्ट्स ही कर सकती हैं या वे सैनिक अदालतें जहां इतने सबूत और प्रमाण ज़रूरी नहीं होते। किसी लोकतंत्र के भीतर ऐसी मांग सिर्फ अलोकतांत्रिक ही कही जा सकती है.

इसी तरह कई लोग यह कहते पाए जाते हैं कि बलात्कार के आरोपियों को सीधे फांसी दे देनी चाहिए या गोली मार देनी चाहिए। यह गुस्सा चाहे जितना सात्विक हो, न विवेकसम्मत है और न ही न्यायसंगत। सिर्फ इसलिए नहीं कि इसमें किसी आरोपी को अपना पक्ष रखने का पूरा मौक़ा नहीं मिलता, बल्कि इसलिए भी कि ऐसी सारी व्यवस्थाएं अंततः बेहद अन्यायपूर्ण और क्रूर साबित होती हैं. झटपट और फटाफट न्याय चाहने की कामना दरअसल अन्याय के चुपचाप पोषण की कामना भी है.

कठुआ के मामले में यह बात बार-बार दुहराई गई कि न बलात्कार पीड़ित का कोई मज़हब होता है न मुजरिम का. उत्पीड़क शैतान होता है, जबकि उत्पीड़ित इंसान. सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है, लेकिन मजहब देखने निकलता कौन है? कठुआ मामले में जिन लोगों को आरोपियों से सहानुभूति थी, य जिन्हें लग रहा था कि उनके साथ नाइंसाफ़ी हो रही है, उन्हें विरोध के लिए न्याय मंच बनाना चाहिए था हिंदू एकता मंच नहीं. इस पूरे मामले को सांप्रदायिक रंग देने का काम ऐसे ही लोगों ने किया. लेकिन क्या यह नई बात है? 3 मार्च 2002 को गुजरात में 5 महीने की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ 14 लोगों ने गैंगरेप किया. उसकी आंखों के सामने उसके परिवार के कई लोग मार दिए गए। लोगों ने इसे गोधरा के जवाब में हुए सांप्रदायिक दंगों का मामला मान कर किनारे कर दिया.  बिलकिस बानो के मुजरिमों को सज़ाए मौत देने की मांग के साथ कहीं कोई आंदोलन नहीं दिखा. इत्तिफ़ाक से उसी के आसपास निर्भया मामले में मुजरिमों की मौत की सज़ा को सबने न्याय माना.

यह अकेला मामला नहीं है. जम्मू-कश्मीर से छत्तीसगढ़ तक महिलाओं से बलात्कार के ढेर सारे मामले पिछले दिनों सामने आए- कुछ में कार्रवाई हुई, कुछ दबा और भुला दिए गए. कई बार यह संदेह भी होता है कि बलात्कार को हमारे सत्ता और सैन्य प्रतिष्ठान ने राजनीतिक दमन का एक हथियार बना रखा है. लेकिन ऐसे तमाम मामलों में राष्ट्रीय रोष दिखाई नहीं पड़ता. क्या इसलिए कि जिनके साथ बलात्कार हुआ, वे हमारे लिए राजनीतिक रूप से कुछ असुविधाजनक, सामाजिक तौर पर कुछ पराये और वैचारिक तौर पर कुछ अग्राह्य थीं?

जाहिर है, बलात्कर हमें तभी चुभता है जब वह एक क्रूर कर्म की तरह हमारे बीच आता है. एक सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के भीतर घट रहे अन्याय के तौर पर रेप पर हमारी नज़र नहीं पड़ती. क्यों नहीं पड़ती है? शायद इसलिए कि स्त्री के प्रति हो रहे बहुत सारे अत्याचारों को लेकर हम बेख़बर रहते हैं- कई बार तो उसमें शामिल भी होते हैं. यह सभ्यता स्त्री को लगातार उपभोग के सामान में बदलती जाती है. दरअसल हमारा जो पूरा मनोरंजन उद्योग है, वह स्त्री को देह तक सीमित करने में तुला है. इस दौर में संगीत के जो एलबम आते हैं, उनमें जैसे दृश्यों के नाम पर कटे-छंटे कंधों, आंखों, बांहों का जो पूरा कोलाज होता है, वह स्त्री को बस एक कामना में बदलता है. विज्ञापनों में तमाम सामान स्त्री के नाम पर बेचे जाते हैं. क्रिकेट की कमेंटरी के कार्यक्रमों में पुरुष प्रस्तोता पूरे सूट-कोट में होते हैं, जबकि महिला प्रस्तोता के कंधे-घुटने खुले होते हैं। जाहिर है, स्त्री की बौद्धिकता का इस्तेमाल भी उसकी दैहिकता के दायरे में ही होता है.

मामला यहीं तक सीमित नहीं है. मोबाइल क्रांति के साथ जो पोर्न क्रांति हुई है, वह भी पूरे माहौल को स्त्री-विरोधी बना रही है. बेशक, इस दौर ने स्त्रियों को बड़ी आज़ादी दी है. लेकिन इसी दौर ने उसे सामान में भी बदला है. आज़ादी और निजी चुनाव के नाम पर वह दरअसल बाज़ार की कठपुतली है जो बाज़ार की भाषा बोलती है. उसके साथ काम कर रहे पुरुष उसे संदिग्ध ढंग से देखते हैं. ज़रूरत पड़ने पर उस पर छींटाकशी से भी गुरेज़ नहीं करते और दूसरी तरह के यौन हमलों से भी.

ये सब बलात्कार से पहले के छलात्कार हैं. हम इन छलात्कारों की अनदेखी करते हैं, बलात्कारों की भी अनदेखी करते हैं. अचानक किसी एक मामले में हमरा आक्रोश अपने चरम पर होता है. काश, इस ज्वालामुखी में कुछ दीर्घ दहनशीलता भी होती- हम उस लैंगिक संवेदना को कुछ और विस्तार दे पाते जिसमें स्त्री हमारी सखी ही हो हमारे लिए उपभोग का सामान नहीं. नहीं तो बलात्कार भी होते रहेंगे और ऐसे प्रदर्शन भी चलते रहेंगे. स्त्री छली जाती रहेगी.